मुस्लिम विवाह क्या है; मुस्लिम विवाह की विशेषताएं
Muslim Vivah Ko Paribhashit Karen
मुस्लिम विवाह को निकाह कहते हैं,मुस्लिम कानून के अनुसार मुस्लिम विवाह एक दीवानी समझौता है जिसका उद्देश्य घर बसाना संतानोत्पत्ति करना एवं उन्हें वैध घोषित करना है। मुल्ला के अनुसार निकाह एक विशिष्ट समझौता है जिसका उद्देश्य बच्चे उत्पन्न करना और उनको वैध घोषित करना है।
उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि मुस्लिम विवाह समझौता है इसके अंतर्गत वह सब बातें मिलती हैं जो भारतीय संविदा अधिनियम के अनुसार एक वैध समझौते में होनी चाहिए इसके अनुसार केवल वे समझौते वैध हैं जिनमें निम्नलिखित तत्व हैं
1 किसी भी पक्ष की ओर से एक प्रस्ताव,
2 उस प्रस्ताव को दोनों बच्चों की स्वतंत्र स्वीकृति यह दोनों पक्ष कानूनी दृष्टिकोण से समझौता करने के योग्य होने चाहिए,
3 समझौते के प्रतिफल के रूप में कुछ धन ।
इस प्रकार मुस्लिम में विवाह एक समझौता न कि एक धार्मिक संस्कार
मुस्लिम विवाह की विशेषताएं क्या है
मुस्लिम विवाह का अर्थ एवं प्रकृति
मुस्लिम कानून के अनुसार विवाह पारस्परिक आनंद प्रजनन और संतानों को वैध करने के लिए विसमलिंगी व्यक्तियों के बीच हुई एक संविदा है। मुस्लिम विवाह को संविदा करने की एक सामान्य प्रवृत्ति चल पड़ी है संविदा की कानूनी विशेषताओं में प्रस्ताव (offer) को स्वीकृति (acceptance) और प्रतिदेय (consideration) मुख्य हैं।
यह तीनों बातें मुस्लिम विवाह में विद्यमान हैं। मुसलमानों में विवाह के लिए प्रस्ताव वर पक्ष की तरफ से कन्या पक्ष के सामने रखा जाता है और वहां पर के इस प्रस्ताव को कन्या या एक पुरुष गवाह तथा दो महिला गवाहों की उपस्थिति में स्वीकार करती है जब वर और कन्या दोनों विवाह के लिए सहमत हो जाते हैं तो दोनों अपनी लिखित सहमति प्रकट करते हैं।
मुस्लिम विवाह में मेहर का भी आयोजन है मेहर प्रतिदेय का ही एक रूप है। मेहर वह धन राशि होती है जिसे वह वधू वर से प्राप्त करती है विवाह के बाद पत्नी मैहर की अधिकारिणी हो जाती है। अतः कानूनी दृष्टि से विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मुस्लिम विवाह एक संविदा है। परंतु समाजशास्त्रीय दृष्टि से मुस्लिम विवाह संविदा नहीं है। मुस्लिम ही क्यों किसी धर्म के मानने वाले लड़कों और लड़कियों के बीच होने वाला विवाह समाजशास्त्रीय दृष्टि से संविदा नहीं है।
मुस्लिम विवाह हिंदू विवाह की भांति प्राथमिक संबंध है ना कि संविदा। संविदा एक ऐसा समझौता है जिसमें समझौता करने वाले दोनों पक्ष भविष्य में निश्चित समय तक निश्चित ढंग व्यवहार करें इसका निर्धारण विवाह के समय नहीं हो सकता और ना ही होता है और ना उसके पारस्परिक अधिकार एवं कर्तव्य की सूची ही बनाई जाती है।
संविदा की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है की इसमें पारस्परिक अधिकार और कर्तव्य पहले से ही निश्चित होते हैं तथा सीमित क्षेत्र होते हैं। समझौते में भाग लेने वाले दो पक्षों में यदि कोई एक पक्ष उन दायित्व को पूरा करने के लिए दूसरे पक्ष से कहता है कि जिस का उल्लेख संविदा में नहीं है तो वह पक्ष उसे पूरा करने के लिए बाध्य नहीं है क्योंकि उनका उल्लेख संविदा में नहीं है उदाहरण के लिए दो व्यापारियों में किसी व्यापार पर समझौता हुआ है और यदि उनमें से एक व्यापारी दूसरे व्यापारी से कहें कि मेरे लड़के को उच्च शिक्षा हेतु विदेश भेज दीजिए तो और दूसरा व्यापारी फौरन कहेगा कि इसके बारे में हमारे बीच समझौता नहीं हुआ है।
अगर कोई बेटा अपने माता-पिता से यह इच्छा करें कि वह उच्च शिक्षा हेतु विदेश जाना चाहता है तो माता-पिता उसे उपरोक्त रोक जवाब नहीं दे सकते। वे या तो उसे भविष्य में भेजने का वायदा करेंगे या वित्तीय प्रकृति संविदा से मेल नहीं खाती है। इसके अलावा संविदा में भाग लेने वाले व्यक्तियों के स्वार्थ में भिन्नता हो सकती है क्योंकि कभी-कभी एक पक्ष को लाभ होता है दूसरे को हानि।
परंतु विवाह में दोनों बच्चों के उद्देश्यों में समानता पाई जाती है यह नहीं है कि पति की हानि से पत्नी को लाभ और पत्नी की हानि से पति को लाभ हो। सच तो यह है कि एक की हानि से दूसरे को हानि होगी इससे यह सिद्ध होता है की विवाह समझौता नहीं है।
इसके अलावा संविदा हमेशा इंपर्सनल होता है। जबकि विवाह संबंध पर्सनल होता है यदि पति का अपनी पत्नी पर इंपर्सनल प्रेम है तो या पति का सबसे बड़ा अपराध है वयक्तिक संबंध का सबसे अनिवार्य गुण है कि वह ट्रांसफर नहीं हो सकता इसका संबंध निश्चित व्यक्तियों से होता है। जिनका स्थानापन्न किसी दूसरे व्यक्ति को नहीं बनाया जा सकता है। नया संबंध बन सकता है पुराना संबंध समाप्त होता है परंतु एक ही संबंध में एक व्यक्ति की जगह दूसरे व्यक्ति को स्थानापन्न नहीं बनाया जा सकता है, क्योंकि मुस्लिम विवाह वयक्तिक संबंध है इसलिए इसे संविदा नहीं कहा जा सकता।
स्मरण रहेगी शुद्ध संविदा आत्मक संबंध तो समाज में पाया ही नहीं जाता क्योंकि हर संविदा में कुछ असंविदात्मक (Non-Contractual) तत्व विद्यमान रहते हैं प्रत्येक संविदा की शर्तों में अनु लिखित यदि संविदा नाबालिक के साथ हुआ है अथवा छल से किया गया है तो यह रद्द समझा जाएगा इसके अतिरिक्त विवाह एक प्राथमिक संबंध है ना कि गॉण अथवा संविदात्मक संबंध ।
रिबेलर लेबी कृत पुस्तक 'दी सोशल स्ट्रक्चर आफ इस्लाम' उल्लेख है कि मोहम्मद साहब के समय में और उनके पूर्ववर्ती समय में हरण विवाह के साथ साथ क्रय विवाह का प्रचलन मुस्लिम समाज में था। इस क्रय विवाह की प्रथा में वर कन्या के पिता या अन्य निकट के रक्त संबंधी को कुछ मुद्रा राशि जिसे मेहर कहते हैं देनी पड़ती थी। और कुछ धनराशि सदाक स्वयं कन्या को प्राप्त होती थी मेहर और सदाक कोई निश्चित मात्रा का निर्धारण नहीं था।
मोहम्मद साहब के समय क्रय विवाह की व्यवस्था अपने मौलिक रूप से थोड़ा भिन्न हो गई थी वह द्वारा धनराशि का भुगतान तो तब भी दिया जाता था लेकिन भुगतान केवल वधु को ही किया जाता था ना कि उसके पिता या अन्य समय के रक्त संबंधी को परिणाम यह हुआ की मेहर और सदैव समानार्थक बन गए।
मुस्लिम विवाह में मेहर का विचार मुख्य है अतः यहां मैहर की प्रकृति की विवेचना अधिक आवश्यक है मुस्लिम कानून पुस्तकों में मैहर की अधिकतम राशि का उल्लेख नहीं है और सूफी लोगों के अनुसार कोई न्यूनतम धनराशि भी मैहर के लिए निर्धारित नहीं है सूफी लोग ऐसे भी मां की अनुमति नहीं देते हैं क्योंकि एक परंपरा के अनुसार मुहम्मद साहब ने अपनी कई पत्नियों को 10 दिरहम का मेहर और अनेक गृहस्थी की वस्तुएं जैसे चक्की जलघर और अन्य लकड़ी का सामान दिया था।
मेहर के धनराशि से वधु को तभी दी जाएगी जब वह स्वतंत्र औरत हो यदि वह दास है तो मेहर की धनराशि का कितना अंश विवाह की पूर्णता के पूर्व अदा किया जाएगा।
इससे विषय में भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में प्रथा भिन्न-भिन्न मेहर का आधार अथवा दो तिहाई अंश जब तक पत्नी से विवाह विच्छेद ना करें मुस्लिम विवाह में मेहर का निर्धारण अनिवार्य है चाहे इसकी मात्रा बहुत कम ही क्यों ना हो परंतु यदि मेहर का निर्धारण नहीं होता तो विवाह अवैध माना जाएगा
मुसलमानों में मेहर के चार रूप प्रचलित है जो इस प्रकार है।
निश्चित मेहर
यह मेहर का वह रूप है जिससे स्त्री को मिलने वाले मेहर का निर्धारण वर वधू की सहमति से होता है।
उचित मेहर
कभी कभी मेहर की राशि विवाह के समय निश्चित नहीं की जाती और बाद में भुगतान का प्रश्न उठता है तो पत्नी के लिए धन की जिस मात्रा का भुगतान कोई उचित समझता है तो उसे उचितमेहर कहा जाता है।
स्थगित मेहर
मुस्लिम समाज में इस मेहर के रूप का प्रचलन सबसे अधिक है। यह वह मेहर होता है जिसका भुगतान या तो विवाह -विच्छेदन होने पर या अन्य किसी निश्चित तिथि पर देय होगा।