संस्था का अर्थ एवं परिभाषा (Sanstha Ka Arth Avn Paribhasha)
सामान्य और समाजशास्त्रीय अर्थ- साधारणतया लोग संस्था और समिति का प्रयोग समान अर्थों में करते हैं। परंतु समाजशास्त्रीय दृष्टि कोण से दोनों ही शब्दों का प्रयोग भिन्न भिन्न अर्थों किया जाता है।
मनुष्य अपने एक या अनेक स्वार्थों कि पूर्ति के लिए जिन संगठन का निर्माण करते हैं, उन्हें हम समिति कहते है। परन्तु समिति के निर्माण के पश्चात उसके सभी मनमाने रूप से कार्य न करके एक निश्चित विधि एवं कार्य प्रणाली के अनुसार व्यवहार एवं कार्य कर अपने उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं, यही कार्य प्रणाली जो कि समिति के सदस्यों के व्यवहारों का नियंत्रण एवं निर्देशन करती है संस्था कहलाती है।
संस्था का क्या अर्थ है?(sanstha ka arth)
मनुष्य के विभिन्न प्रकार की आवश्यकता की पूर्ति हेतु बनाए गए संगठन को हम समिति कहते हैं। जबकि कार्य करने के संगठित और सिद्ध ढंगो एवं कार्य प्रणालियों को हम संस्था कहते हैं।
इस संस्था शब्द की विशुद्ध और स्पष्ट व्याख्या मैकाइवर एवं पेज के अनुसार एच. ई. बार्न्स के विस्तृत अध्ययन में मिलती है। जिसमें संस्था को एक ऐसी सामाजिक संरचना एवं मशीनरी के रूप में माना है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी विभिन्न प्रकार की आवश्यकता की पूर्ति के लिए विभिन्न कार्यों को संगठित निर्देशित एवं कार्य रूप में परिणित करता है।
इस दृष्टिकोण से राज्य और परिवार भी उसी प्रकार की संस्थाएं हैं जैसे विवाह और सरकार परंतु यह अर्थ स्पष्ट नहीं है। संस्था से हमारा तात्पर्य मैकाइवर और पेज के अनुसार समूह की कार्य प्रणालियों के स्वरूपों एवं दशाओं से है।
संस्था शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग स्पेंसर ने अपनी पुस्तक First Principle में किया था। उन्होंने बताया की संस्था वह अंग है जिसके माध्यम से समाज के कर्मों को क्रियावंतित किया जाता है।
मनुष्य के विभिन्न प्रकार की आवश्यकता की पूर्ति हेतु बनाए गए संगठन को हम समिति कहते हैं। जबकि कार्य करने के संगठित और सिद्ध ढंगो एवं कार्य प्रणालियों को हम संस्था कहते हैं।
प्रत्येक समाज में कुछ कार्यों को संस्थागत करने की प्रक्रिया पाई जाती है। जैसे हम सभी अपने जीवन में दूसरों को शिक्षा देने और प्राप्त करने का कार्य किया करते हैं, फिर भी ना तो हम सभी शिक्षक की संज्ञा प्राप्त कर सकते हैं ना विद्यार्थी की जिस समाज में पढ़ने पढ़ाने के कार्य को संस्थागत कर दिया जाता है वहां शिक्षा का अस्तित्व मिलता है।
इस प्रकार जहां भी किसी प्रकार की संस्था मिलती है किसी न किसी समिति का अस्तित्व पाया जाना भी स्वाभाविक ही है। जैसे विवाह संस्था के साथ परिवार समिति शिक्षा संस्था के साथ विद्यालय प्रशासन के साथ राज्य आदि इसके अतिरिक्त कभी-कभी अनेक समितियां एक ही संस्थागत कार्य कर सकते हैं। जैसे विभिन्न स्कूल विद्यालय कॉलेज और विश्वविद्यालय शिक्षा संस्था का कार्य करते हैं।
संस्था की परिभाषा (Sanstha Ki Paribhasha)
विभिन्न समाज शास्त्रियों ने अपने-अपने ढंग से संस्था को परिभाषित किया है हम कुछ मुख्य परिभाषा को यहाँ पर बता रहे है।
1. मैकाइवर और पेज ने संस्था की परिभाषा देते हुए लिखा है "संस्था कार्य प्रणाली के उस प्रतिष्ठित स्वरूप अथवा स्थित को कहते हैं जो समूह की क्रियाओं की विशेषताएं स्पष्ट करती है"।
2. गिलिन और गिलिन ने लिखा है "एक सामाजिक संस्था सांस्कृतिक प्रतिमानो (जिनमें क्रियाएं विचार मनोवृति या तथा सांस्कृतिक उपकरण सम्मिलित हैं) का वह क्रियात्मक स्वरूप है। जिसमें कुछ स्थायित्व होता है तथा जिसका कार्य सामाजिक आवश्यकताओं को संतुष्ट करना है"।
इनका मानना हैं, कि संस्था में सामाजिक उपयोगिता की मात्रा होती है। संस्था का निर्माण किसी व्यक्ति मात्र की स्वीकृति एवं अनुमोदन से नहीं होता। बल्कि इसकी उत्पत्ति कई पीढ़ियों के समुचित योग से होता है इसलिए इसमें स्थिरता की मात्रा भी पाई जाती है संस्थाएं प्रतिदिन बदला नहीं करती हैं।
3. बोगार्डस के शब्दों में "एक संस्था समाज की संरचना है जिससे कि संस्थापित कार्य विधियों द्वारा व्यक्तियों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए संगठित किया जाता है"। आपने संस्थाओं से तात्पर्य उन कार्य प्रणालियों से लगाया है, जिनका उद्देश्य संगठित रूप में मानव की अवश्यकताओ की पूर्ति करना होता है।
4. सदरलैंड के अनुसार "एक संस्था अनरीतियों एवं रूढ़ियों का ऐसा समूह है, जो कुछ मानवीय उद्देश्यों की पूर्ति मे केन्द्रीभूत होता हैं।"
5. बेबलिन के अनुसार "संस्थाएं सामान्य जनता मे पाई जाने वाली विचार करने की स्थिर आदतें हैं।"
उपरोक्त परिभाषा ओं से स्पष्ट है कि संस्था को कुछ विद्वान स्वीकृत प्रतिमान के रूप में मानते हैं।
इसके विपरीत समनर कूले आदि विद्वान संस्था से आशय आदर्श नियमों से लगाते हैं।
संस्था का उदविकास (evolution of institution)
संस्था के उदविकास की प्रक्रिया अत्यंत जटिल होती है। संस्था का विकास एक या दो दिन में नहीं होता, बल्कि इसमें कई पीढ़ियों का योगदान रहता है।
संस्थाओं की उत्पत्ति के पीछे मानव की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विचारों के विकास के साथ होती है।
आवश्यकताएं मानव जीवन के सामने विभिन्न समस्याओं को जन्म देती हैं। जिनकी हल के लिए व्यक्ति के मस्तिष्क में विभिन्न विचारों का टकराव होता है। इन विचारों में से कुछ समस्या का हल प्रस्तुत करते हैं। ऐसी स्थिति में पुनः उसी प्रकार की परिस्थिति पैदा होने पर व्यक्ति फिर उसी प्रकार का सहारा लेता है और इस प्रकार बार-बार दोहराने से व्यक्ति की आदत बन जाती है।
समनर ने लिखा है एक संस्था एक विचारधारा (विचार, मन सिद्धांत,स्वार्थ,आवश्यकता) और एक ढांचे से मिलकर बनती है। धीरे-धीरे यह व्यक्तिगत आदत अधिकतर लोगों की आदत बन जाती है। धीरे-धीरे इन प्रथाओ में सामाजिक कल्याण की भावना जुड़ जाती है तब इन्हें रूढ़ियों की संज्ञा दी जाती है।
इन रूढ़ियों का एक ढांचा निर्मित होने लगता है तथा कई पीढ़ीयो तक हस्तांतरित होने के कारण इनमें कल्याण और नियंत्रण की मात्रा और भी बढ़ जाती है। रूढियो के इसी ढांचे को अंत में संस्था का नाम दिया जाता है।
समनर ने संस्था के विकास की प्रक्रिया के बारे में लिखा है "संस्थाएं लोकरितियों से शुरू होती हैं फिर वे प्रथाएं बन जाती हैं। उनमें कल्याण का दर्शन जुड़ जाने पर वे रूढ़ियों में विकसित हो जाती है। इसके बाद नियमों निहित कार्यों और साधनों का प्रयोग होता है। उनके बारे में वे अधिक निश्चित और स्पष्ट बना दी जाती है"।
इस प्रकार संक्षेप में हम कह सकते हैं कि संस्था का विकास विभिन्न चरणों में होता है जो कि निम्न है।
- विचारधारा
- व्यक्तिगत आदत
- समूह की आदत या लोकरीत
- प्रथा
- रुचि
- ढांचा
- संस्था
संस्था की विशेषताए ( Sanstha Ki Visheshtayen )
संस्था के विकास की प्रक्रिया एवं विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर हम संस्था के नियम विशेषताओं का उल्लेख कर सकते हैं।
1. संस्था संस्कृति व्यवस्था की इकाई का कार्य करती है विभिन्न प्रथाओं लोकरितियां एवं रूढ़ियां जोकि संस्कृति का निर्माण करते हैं संस्था की विभिन्न इकाइयां ही होती हैं।
2. Sanstha में अन्य मानव संगठनों से स्थायित्व की मात्रा कहीं अधिक होती है पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहने के कारण इन में पर्याप्त रूढ़िवादिता आ जाती हैं इन में परिवर्तन की मात्रा बहुत मंद होती है।
3. प्रत्येक का संस्था का सुपरिभाषित उद्देश्य होता है और संस्था उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास किया करती है।
4. प्रत्येक संस्था के कुछ अपने सांस्कृतिक उपकरण भी होते हैं। जैसे यज्ञ हवन मंत्र एवं बर्त आदि जैसे हिंदुओं के विवाह संस्था में कलश मंडप बंदनवार एवं चावल आवश्यक उपकरण माने जाते हैं।
5. एक संस्था का अपना एक प्रतीक भी होता है। जिसके आधार पर हम उसे पहचानते हैं। जैसे किसी विश्वविद्यालय की अपनी विशेष मुहर होती है। यह प्रत्येक भौतिक एवं अभौतिक दोनों हो सकते है।
6. संस्था की अपने कुछ परंपराएं होती हैं और प्रत्येक सदस्य उनका पालन करता है। जो ऐसा नहीं करते उनके विरुद्ध कार्यवाही भी की जा सकती है।
संस्था का महत्त्व (Sanstha Ka Mahatva)
संस्था की उत्पत्ति के पीछे समाजिक उपयोगिता छिपी रहती है। प्रत्येक संस्था की उत्पत्ति किसी न किसी आवश्यकता की पूर्ति से सम्बन्धित विचारो से ही प्रारम्भ होती है। यही कारण है की प्रत्येक संस्था के निश्चित उद्देश्य होते है और कोई भी संस्था उसी समय अपने अस्तित्व को बनाए रखती है जब तक उस उद्देश की पूर्ति में सहायक रहती है। जिस समय वह इस कार्य में असफल होने लगती है तो उस संस्था का विघटन प्रारम्भ हो जाता है।