शिक्षा का स्वरूप (Shiksha Ka Swaroop)
शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो मनुष्य की जन्मजात शक्तियों को पूर्ण स्वाभाविक तरीके से विकसित करती है। यह व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करती है। शिक्षा के द्वारा ही व्यक्ति अपने वातावरण से सामंजस्य स्थापित कर पाता है।
सामान्यतः शिक्षा से तात्पर्य विद्यालयों में प्राप्त होने वाली शिक्षण प्रक्रिया से लगाया जाता है, परन्तु शिक्षा तो जीवन पर्यन्त चलती रहती है। मनुष्य अपने सम्पूर्ण जीवन में शिशु काल से लेकर मृत्युपर्यन्त तक अपने अनुभवों से कुछ न कुछ सीखता रहता है।
शिक्षा केवल बालक के मस्तिष्क में ज्ञान भरना मात्र नहीं है, बल्कि बालक की सभी जन्मजात शक्तियों का सर्वांगीण विकास करना ही शिक्षा है।
प्राचीन समय में गुरु ही सक्रिय रहता था परन्तु अब ऐसा नहीं है। छात्र और शिक्षक दोनों ही इस प्रक्रिया में सक्रिय होकर भाग लेते हैं। इसलिए इसे द्विमुखी प्रक्रिया भी कहा जाता है।
शिक्षा एक गतिशील प्रक्रिया है। शिक्षा और समाज साथ-साथ चलते हैं, क्योंकि जब-जब समाज में परिवर्तन होता है तब-तब शिक्षा में भी परिवर्तन होता है। ऐसा नहीं हो सकता है कि समाज आगे निकल जाये और शिक्षा पीछे ही रह जाये।
शिक्षा समाज के अनुरूप अपने को परिवर्तित करती चलती है। अतः इसे गतिशील प्रक्रिया कहा जाता है।
जॉन डीवी शिक्षा को त्रिमुखी प्रक्रिया कहते हैं। उनका कथन है कि शिक्षा में शिक्षक और शिक्षार्थी के अतिरिक्त तीसरी चीज पाठ्यक्रम भी होती है तथा शिक्षा इन्हीं तीनों के मध्य की पारस्परिक अन्तः क्रिया है।
डीवी का विचार है कि बालक जिस समाज में निवास करता है, शिक्षा का यह परम कर्तव्य है कि वह व्यक्ति को उस समाज के लिए तैयार करे और ऐसा तभी हो सकता है जब उसे अपने समाज में होने वाली शिक्षाओं का ज्ञान होगा।
शिक्षा की प्रकृति के सम्बन्ध में मूल रूप से दार्शनिकों, समाजशास्त्रियों, राजनीतिशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों ने विचार किया है। इनके विचारों से शिक्षा की प्रकृति के निम्नलिखित तथ्य माने जाते हैं।
1. शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। इसके तीन प्रमुख अंग हैं शिक्षक, शिक्षार्थी एवं पाठ्यक्रम । शिक्षक एक मार्गदर्शक होता है जो शिक्षार्थी के सामने प्रत्यक्ष उपस्थित रहता है या फिर पर्दे के पीछे से कार्य करता है।
2. प्रचलित रूप में शिक्षा से तात्पर्य विद्यालयी शिक्षा से लगाया जाता है परन्तु यह शिक्षा का संकुचित अर्थ है। व्यापक अर्थ में शिक्षा जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है तथा हमें शिक्षा को इसी रूप में ही स्वीकार करना चाहिए।
3. शिक्षा एक उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है, इसके उद्देश्य समाज द्वारा निर्धारित होते हैं और विकासोन्मुख होते हैं। इस प्रकार शिक्षा विकास की प्रक्रिया है।
4. व्यापक अर्थ में शिक्षा की विषय सामग्री बहुत व्यापक होती है। उसे किसी सीमा में बाँधा नहीं जा सकता परन्तु संकुचित अर्थ में इसकी विषय सामग्री निश्चित पाठ्यचर्या तक सीमित होती है। परन्तु दोनों अर्थों में यह व्यक्ति और समाज के विकास में सहायक होती है।
5. व्यापक अर्थ में शिक्षा की विधियाँ बहुत व्यापक होती हैं परन्तु संकुचित अर्थ में प्रायः शिक्षण विधियाँ निश्चित होती हैं।
6. शिक्षा का स्वरूप समाज के धर्म दर्शन, उसकी संरचना संस्कृति शासनतंत्र, अर्थतंत्र वैज्ञानिक प्रगति आदि पर निर्भर करता है। समाज के इन स्वरूपों में परिवर्तन होने से शिक्षा भी परिवर्तित होती है।
शिक्षा : विज्ञान अथवा कला (Education Science or Art)
अधिकांश विषयों के सम्बन्ध में यह प्रश्न उठता है कि वह विज्ञान है अथवा कला है। यही प्रश्न शिक्षा के सम्बन्ध में भी उठता है शिक्षा विज्ञान है अथवा कला। कुछ शिक्षाशास्त्री इसे विज्ञान के रूप में स्वीकार करते हैं।
सामान्यता हम विज्ञान उसी को कहते हैं जिसमें कुछ निश्चित नियम होते हैं तथा उनमें स्थान, समय अथवा व्यक्ति भेद से कोई अन्तर नहीं आता है।
दूसरी ओर कला वह है जिसमें व्यक्ति अपनी ओर से परिवर्तन करके नवीन वस्तु अथवा भाव पैदा कर सकता है। लेकिन यदि शिक्षा की प्रक्रिया का विश्लेषण करें तो यह न तो विशुद्ध विज्ञान है और न ही विशुद्ध कला। इसके अनुसार शिक्षा कला भी है और विज्ञान भी है।
विज्ञान विषय उसे कहते हैं जो कार्य-कारण श्रृंखला से आबद्ध होकर तथ्यों का निरूपण तार्किक ढंग से करती है। इसके कुछ नियम होते हैं जो दृढ़, अटल और अपरिवर्तनशील होते हैं। इनमें समय, स्थान अथवा व्यक्ति भेद में कोई अन्तर नहीं आता है।
भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, वनस्पतिशास्त्र एवं गणित आदि को विशुद्ध विज्ञान कहा जाता है क्योंकि इनके नियम पूर्ण तथा अपरिवर्तनशील होते हैं। शिक्षा में भी शिक्षा के विशेषज्ञ सैद्धान्तिक स्तर पर शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यक्रम शिक्षण विधि आदि के क्षेत्र में नियमों का निर्धारण करते हैं और इन नियमों के निर्धारण में वैज्ञानिक विधियों का सहारा लिया जाता है।
इसलिए शिक्षा को विज्ञान के अन्तर्गत माना जाता है लेकिन शिक्षा को विशुद्ध विज्ञान की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता क्योंकि विज्ञान के नियमों की तरह इसके नियम और सिद्धान्त अपरिवर्तनशील और अटल नहीं होते हैं। पर देश, काल, परिस्थिति और व्यक्तिगत भिन्नताओं के अनुसार बदलते रहते हैं।
कला का अर्थ व्यावहारिक कुशलता से लिया जाता है। इसका कार्य रचना, सृजन तथा निर्माण करना है। इसमें व्यक्ति अपनी ओर से परिवर्तन करके नवीनता पैदा कर सकता है। इसमें नियमों का कोई बन्धन नहीं होता।
संगीत, काव्य, चित्रकारी एवं मूर्तिकला आदि को विशुद्ध कला कहा जाता है। शिक्षा भी एक कला है क्योंकि इसमें शिक्षक अपने विचारों और आदर्शों के अनुसार बालक के मानस पटल पर विभिन्न प्रकार के विचार अंकित कला है।
परन्तु शिक्षा को विशुद्ध कला नहीं माना जा सकता क्योंकि शिक्षक अपने कार्य में चित्रकार, संगीतज्ञ और कवि की तरह स्वतंत्रता नहीं दे सकता। उसे पाठ्यक्रम एवं बालक की रुचियों के अनुसार ही कार्य करना पड़ता है।
शिक्षा की प्रक्रिया का यदि विश्लेषण करें तो यह कह सकते हैं कि इसमें विज्ञान और कला दोनों की ही विशेषतायें विद्यमान हैं। इसलिए यह आंशिक रूप से विज्ञान है तो आंशिक रूप से कला भी।
शिक्षा के कुछ नियम ऐसे होते हैं जो सर्वमान्य तथा सुनिश्चित है तथा उनका उल्लंघन करने से हमें हानि भी हो सकती हैं क्योंकि शिक्षा का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज दोनों से ही होता है और समाज परिवर्तनशील है तो शिक्षा के नियम भी दृढ़ न होकर परिवर्तनशील होते हैं, इसलिए शिक्षा को विशुद्ध विज्ञान की श्रेणी में नहीं रखा जाता है और न ही विशुद्ध कला की श्रेणी में रखा जा सकता है ।
शिक्षा में पाठ्यक्रम शिक्षण विधियाँ आदि में वैज्ञानिक नियमों एवं सिद्धान्तों का आश्रय लिया जाता है फिर उनको कलात्मक ढंग से व्यवहार में लाया जाता है इसी कारण से शिक्षा को विज्ञान अथवा कला दोनों कहा जाता है।