गुप्त वंश का (गुप्तकालीन) इतिहास जानने के साधन
गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है। मौर्यों के पतन के बाद नष्ट हुई भारत की राजनीतिक एकता को गुप्त शासकों ने पुनः अर्जित किया तथा लगभग संपूर्ण भारत को एक राजनीतिक क्षेत्र के अधीन कर शक्तिशाली विदेशी आक्रमणकारियों का सफलतापूर्वक सामना करके भारत की स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखा।
सांस्कृतिक उन्नति होने के कारण गुप्त वंश के विषय में जानने के लिए प्रचुर मात्रा में सामग्री उपलब्ध है इस युग के इतिहास की इस सामग्री को निम्नलिखित भागों में बांटा जा सकता है।
(1) साहित्यिक स्रोत
गुप्त काल पर प्रकाश डालने वाली प्रमुख साहित्यिक सामग्री पुराण, धर्म शास्त्र, काव्य एवं नाट्य साहित्य, विदेशी यात्रियों के वृतांत आदि हैं।
(2) अभिलेखीय
गुप्त वंश के इतिहास के निर्माण में भारत के विभिन्न स्थानों से प्राप्त अभिलेखों से महत्वपूर्ण सहायता मिलती है। ऐतिहासिक दृष्टि से प्रमुख गुप्त अभिलेख हैं - समुद्रगुप्त के प्रयाग व ऐरण अभिलेख, चंद्रगुप्त के महरौली, उदयगिरी गुहा अभिलेख, कुमारगुप्त के भिलसद, गढ़वा मंदसौर अभिलेख व स्कंदगुप्त के भीतरी तथा का कहौम अभिलेख हैं।
(3) मुद्राएं
गुप्तकालीन मुद्राओं से तत्कालीन स्थिति पर व्यापक प्रकाश पड़ता है। गुप्त युग से भारतीय मुद्रा के इतिहास में नवीन युग का शुरू होना माना जाता है।
(4) मुहरें
गुप्तकालीन अनेक मुहरे वैशाली से प्राप्त हुई है, जिनसे तत्कालीन प्रांतीय तथा स्थानीय व्यवस्था के विषय में पता चलता है।
(5) स्मारक
गुप्तकालीन स्मारकों में प्रमुख भूमरा का शिव मंदिर, तिगवा का विष्णु मंदिर, नचना का पार्वती मंदिर, भीतरगांव का लाड़खान मंदिर है, जिनमें गुप्त काल से प्रारंभ हुई शिखर बनाने की परंपरा के विषय में पता चलता है।
गुप्तवंश का संस्थापक गुप्त
(Gupta - The Founder Of The Gupta's)
गुप्तों की जाति(Caste of Guptas)
(1) वैश्य - अनेक विद्वानों ने गुप्तों को वैश्य माना है। इन विद्वानों में प्रमुख अलतेकर, आयंगर व एलेन है।
(2) ब्राह्मण - कतिपय इतिहासकार गुप्तों को ब्राह्मण मानते हैं। इन विद्वानों में डॉक्टर राय चौधरी, डॉक्टर रामगोपाल गोयल व डॉक्टर उदय नारायण राय प्रमुख हैं।
(3) शूद्र - डॉक्टर जयसवाल गुप्तों को शूद्र मानते हैं।
(4) क्षत्रिय - गुप्तों को क्षत्रिय मानने वाले विद्वानों में डॉ उपाध्याय, डॉ ओझा, डॉ पांथरी आदि प्रमुख हैं।
निष्कर्ष - विभिन्न मतों की विवेचना करने के बाद भी परस्पर विरोधी प्रमाणों के कारण गुप्तों की जाति के संबंध में निश्चित रूप से किसी निर्णय पर पहुंचना बहुत ही कठिन काम है। गुप्तो क्योंकि क्षत्रियों के कर्तव्य का पालन किया था, अतः उन्हें क्षत्रिय ही माना जाना उचित है।
गुप्तो का मूल निवास स्थान (Original Place Of Gupta's)
गुप्तों के मूल निवास स्थान के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं जिनमें प्रमुख मत निम्न है।
गंगा यमुना का दोआब - पुराणों में मिले एक श्लोक के आधार पर कतिपय विद्वान गंगा-यमुना के दोआब तथा मध्य देश को गुप्तों का मूल निवास मानते हैं।
कौशांबी - डॉक्टर जयसवाल 'कौमुदी महोत्सव' नामक नाटक के आधार पर गुप्तों का मूल निवास स्थान कौशांबी को मानते हैं, लेकिन अन्य विद्वान इसे स्वीकार नहीं करते।
बंगाल - गुप्तों का मूल निवास स्थान बंगाल मानने वाले विद्वानों में प्रमुख हैं, डॉक्टर गांगुली, डॉ मजूमदार व सुधाकर चट्टोपाध्याय हैं।
पूर्वी उत्तर प्रदेश व मगध - प्रोफेसर जगन्नाथ का विचार है कि गुप्तो का आदि स्थान बनारस का सीमावर्ती क्षेत्र था।
निष्कर्ष - पुराणों के अनुसार प्रारंभिक गुप्त शासकों का उत्तर प्रदेश व मगध पर अधिकार था। अतः ऐसा लगता है कि गुप्तों का आदि निवास स्थान पूर्वी उत्तर प्रदेश व पश्चिमी मगध का कुछ भूभाग रहा होगा।
गुप्त काल के प्रमुख शासक
श्री गुप्त ( 275 ई० - 300ई०)
गुप्त वंश का संस्थापक व प्रथम शासक श्री गुप्त था।
घटोत्कच (300ई० - 319ई०)
श्री गुप्त की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र घटोत्कच शासक बना।
चन्द्रगुप्त प्रथम (329 ई० - 324 ई०)
घटोत्कच के पश्चात उसका पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम शासक बना गुप्त अभिलेखों से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त प्रथम ही गुप्त वंश का प्रथम शासक था जिसकी उपाधि महाराजाधिराज की थी।
गुप्त संवत - चंद्रगुप्त ने गुप्त संवत की स्थापना 319 ईसवी में की थी।
शासन अवधि - कुछ विद्वानों ने चंद्रगुप्त का शासनकाल 325 ईसवी तक माना है। परंतु प्रभावशाली प्रमाणों के अभाव में ऐसा मानना तर्कसंगत नहीं है। अतः चंद्रगुप्त का शासनकाल 324 ईसवी की माना जाता है।
राज्य विस्तार - चंद्रगुप्त प्रथम ही गुप्त वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक था। कुमार देवी से विवाह करने के कारण उसे लिच्छवियों का वैशाली का राज्य प्राप्त हो गया था। चंद्रगुप्त का राज्य पश्चिम में प्रयाग जनपद से लेकर पूर्व में मगध अथवा बंगाल के कुछ भाग उत्तर व दक्षिण में मध्य प्रदेश के दक्षिण पूर्वी भागों तक विस्तृत था।
समुद्रगुप्त ( 325 ई . - 375 ई . ) ( SAMUDRA GUPTA )
चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र समुद्रगुप्त शासक बना । समुद्रगुप्त के शासनकाल का गुप्तकालीन इतिहास में विशेष महत्व हैं, क्योंकि भारत - राष्ट्र की सुरक्षा , समृद्धि एवं संस्कृति की संवृद्धि के लिए यह आवश्यक था कि भारत में एकछत्र राज्य की स्थापना हो ताकि भारत एक राजनीतिक शृंखला में आबद्ध रहे।
समुद्रगुप्त के विषय में यद्यपि अनेक शिलालेखों , स्तम्भ - लेखों , मुद्राओं व साहित्यिक ग्रन्थों से व्यापक जानकारी प्राप्त होती है , परन्तु सौभाग्य से समुद्रगुप्त पर प्रकाश डालने वाली अत्यन्त प्रामाणिक सामग्री " प्रयाग - प्रशस्ति " के रूप में उपलब्ध है । यह प्रशस्ति प्रयाग के किले के भीतर अशोक के स्तम्भ पर उत्कीर्ण है जिसे समुद्रगुप्त की राजसभा के प्रसिद्ध विद्वान हरिषेण ने उत्कीर्ण कराया था । ऐतिहासिक दृष्टि से सुमद्रगुप्त की मुद्राएं भी अत्यंत उपयोगी है।
समुद्रगुप्त एक महान योद्धा तथा कुशल सेनापति था , इसी कारण स्मिथ ने उसे ' भारतीय नेपोलियन ' कहा है।
समुद्रगुप्त की विजये – समुद्रगुप्त की विजय यात्रा इस प्रकार है।
( अ ) आर्यावर्त का प्रथम अभियान - प्रयाग - प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त ने इस अभियान के दौरान निम्नलिखित राजाओं पर विजय प्राप्त की :- अच्युत
- नागसेन
- गणपतिनाग,
- कान्यकुब्जा
( ब ) दक्षिणापथ का अभियान - आर्यावर्त के प्रथम अभियान की सफलता के पश्चात् समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत का अभियान किया तथा 12 राज्यों पर विजय प्राप्त करने में सफल रहा । समुद्रगुप्त द्वारा पराजित राज्यों के नाम इस प्रकार थे कोसल , महाकान्तार , कोराल , पिष्टपुर , कोडर . एरण्डपल्ल , कांची , अवमुक्त , वैंगी , पालक्क , देवराष्ट्र , कुस्थलपुर ।
( स ) आर्यावर्त का द्वितीय अभियान - उत्तर भारत के द्वितीय अभियान में समुद्रगुप्त रुद्रदेव , नागदत्त , चन्द्रवर्मा , गणपतिनाग , नागसेन , अच्युत , नन्दि एवं बलवर्मा - इन 9 राजाओं को परास्त कर किया । समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के इन राजाओं से कुपित होकर उन्हें परास्त ही नहीं किया वरन शक्ति के द्वारा उनका विनाश भी किया तथा उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिली लिया ।
( द ) आटविक राज्यों पर विजय प्रयाग - प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त ने आटविक राज्यों के शासकों को अपना दास बना लिया था । इससे ऐसा आभास होता है कि समुद्रगुप्त ने आठविक राज्यों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था । फ्लीट का विचार है कि ये आटविक राज्य उत्तर में गाजीपुर से लेकर जबलपुर तक फैले हुए थे ।
( य ) सीमावर्ती राज्यों द्वारा अधीनता - प्रयाग - प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त उपरोक्त विजयों से प्रभावित होकर सीमावर्ती राज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी ।
ये सीमान्त प्रदेश थे — समतट , डवाक , कामरूप , नेपाल , कर्तृपुर , मालव , अर्जुनायन , यौधेय , भद्रक , आभीर , प्रार्जुन , सनकानिक , काक , खरपरिक ।
( 1 ) विदेशी राज्य हरिषेण ने प्रयाग - प्रशस्ति में कुछ विदेशी शक्तियों का उल्लेख किया है जिन्होंने समुद्रगुप्त को आत्म समर्पण करना ( आत्म निवेदन ) , कन्याओं का उपहार देना तथा गरुड़ मुद्रा ( गुप्तों की राजकीय मुद्रा ) से अंकित उसके आदेश को अपने - अपने शासन क्षेत्रों में प्रचलित करना स्वीकार किया ।
साम्राज्य विस्तार - समुद्रगुप्त ने अपनी अनेकानेक विजयों से एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की । समुद्रगुप्त के साम्राज्य में लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत , छत्तीसगढ़ व उड़ीसा के पठार तथा पूर्वी तट के अनेक प्रदेश सम्मिलित थे । इस प्रकार उसका साम्राज्य पूर्व में ब्रह्मपुत्र दक्षिण में नर्मदा तथा उत्तर में कश्मीर की तलहटी तक विस्तृत था ।